संजोकर रखा था
जो यादें तुम्हारी
मैंने अपने दिल में
वे भी अब बिखरने लगी है
मेरी तरह
बार -बार उन्हें
फिर से समेटने की कोशिश करता हूँ
पर टूटा हुआ आदमी
कहाँ समेट पाता है कुछ ?
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
पर टूटा हुआ आदमी
ReplyDeleteकहाँ समेट पाता है कुछ ?
uffff sach kaha aapne..bahut khoob.