Saturday, December 25, 2010

सूरज को सोचता हूं

अब कभी -कभी  मैं 
सूरज को सोचता हूं 
उसके अकेलेपन को सोचता हूं 
उसकी जलन की पीड़ा को सोचता हूं 
कैसे सह रहा है वह 
इस जलन को सदियों से 
ख़ामोशी से ?
निथर हो कर 
मैं यह सोचता हूं .

9 comments:

  1. aap likhte hai kuch aisa ki... ham bahut khoob kahne ke shiva kuch kah bhi nahi sakta hoo...

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  2. बहुत गहरी बात कही आपने /
    पाठकों के सामने एक प्रश्न वाचक छोड़ दिया आपने /
    हमें भी सूर्य की तरह तपना चाहिए

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  3. शायद ये जलन और ख़ामोशी ही इस सूरज की पहचान है नित्य भैया ...

    सौरव

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  4. khud kast utha kar,
    dusroN ki madad karna,
    suraj ka khud jal kar,
    dusroN ko raushani dena,
    donoN ka aanand apaar,
    kahta logoN ko samjha dena.

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  5. अच्‍छी कविता है, सूरज के साथ हमारे सनातन रिश्‍ते को आत्‍मीयता से देखने का यह अंदाज कवि की संवेदनशीलता का अंतरंग परिचय देता है। बधाई।

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  6. बहुत सुन्दर कविता. गहन विचार भी गहरी संवेदना भी.

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  7. चला जाता हूँ कुछ सोचते हुए...?
    कि हुआ क्या था जो ये हुआ...
    सपना जो टूट गया,कि राह एकदम से रुक गयी,कि सब कुछ ठहर गया....
    लेकिन ये अंत नही है...चलना है मुझे अभी ...
    वो पाना है जो कभी सोचा था....और ना रुका था मै ना रुकुंगा मै.....
    क्योंकि मै परिवर्तन हूँ मुझे तो होना ही है ....

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इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...