सफेद पोशाक का चोला ओड़ कर
शैतान घुमे हैं आंगन में
अशुर भी आज शर्मसार है
इन्सान की ऐसी हरकतों से
जिधर देखो लहू के प्यासे
...लम्बी तिलक
लम्बी दाड़ी
सिर पर टोपी और
कुछ अस्त्रधारी
बेरोजगार सब घुमने वाले
पड़ गए हैं इनके पाले
कौन जाने इनके मन के जाले
न राम जाने न रहीम जाने
किसी का कहना कभी न माने
अब क्या हो ऊपरवाला जाने
सावधान रहना इनसे
मुंह मत लगना इनके
यह कब हुए किसी के ?
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
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