जुगनुओं ने टिमटिमाना
कम कर दिया है
शेष बचे जंगलों में
और मेरे बच्चे
सहजकर रखने लगे हैं
जानवरों की तसवीरें
अपने बच्चों के लिए .
माँ ने उस "बरसाती कोट" को
बेच दिया है -
जो बाबा ने दिया था उन्हें
बारिश से बचने के लिए
मेरे शहर से
श्रावण रूठ गया है .
नदियाँ थककर चूर हैं
रुक गयी है
एक जगह पर
मैदान बनकर
श्रावन में भी अब उन्हें
प्यास लगती है .
भंवर को
देखा नही कब से
फूलों पर मचलते
कुमुदनी अब शायद
ग्रस्त है किसी "फ्लू " से .
Sunday, March 14, 2010
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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