सीखना चाहता हूं
चला जाना चाहता हूं
मैं वहां तक
जहाँ तक नजरें जाती हैं .....
जंहाँ देखता हूं रोज
सूरज को डूबता हुए .
मैं पकड़ना चाहता हूं अपने हाथों में
पश्चिम की आकाश में फैले हुए रंगों को
भर लेना चाहता हूं
उन्हें अपने दामन में.
कुमुदनी पर मचलते तितलियों से सीखना चाहता हूं
आशिक बनना
मैं उनका शागिर्द बनना चाहता हूं .
नन्हे पौधों से सीखना चाहता हूं
सर झुकाकर नमन करना , और
सीखना चाहता हूं
मित्रता. किन्तु
मनुष्यों से नहीं
पालतु पशुओं से , किउंकि
वे स्वार्थ के लिए
कभी धोखा नहीं देते .
Saturday, February 20, 2010
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
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वे सारे रंग जो साँझ के वक्त फैले हुए थे क्षितिज पर मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में तुम्हारे लिए वर्षों से किताब के बीच में रख...
Well done ...excellent...children should learn this poem....
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