Saturday, October 31, 2009

सपने खरीदने लगा है इन्सान

साथी अब हाथ नही बढाता
साथी अब हाथ खीचता है पीछे
साथी अब जान चुके हैं
बाजारवाद - पूंजीवाद का स्वाद ।

उसे शायद लगा है
मीठा इसका स्वाद
तभी तो ख़ुद को बेचकर
वह सपने खरीदने लगा है ।

1 comment:

  1. punjivaad system me har koi ek dusre ka shoshan karta hai /
    beautiful composition

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इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...