तुम्हारे बाद
अब
मेरी भी सोच बदलने लगी है
अदालत में खड़ा
एक भाड़े की गवाह की तरह
पता नही, अब
मै कब क्या बोल जाऊँ
मै भी अब रुख बदलने लगा हूँ
मेरे शहर में चलती हवाओं की तरह।
रात के बाद
दिन भी कटता हूँ , मै
सोच बदल बदल कर
अब मेरा कोई भरोसा नही
जो था ,
टूट गया कांच की तरह
सोचा था पाषाण हूँ लेकिन
ख़ुद को पाया सूखे रेत की तरह
आज-कल टुकडों में जी रहा हूँ.
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
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वे सारे रंग जो साँझ के वक्त फैले हुए थे क्षितिज पर मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में तुम्हारे लिए वर्षों से किताब के बीच में रख...
bhai baht accha lehkha hai bhai tumari kayvitayeni
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